12 जनवरी 2021

लोहड़ी : "दुल्ला भट्टी वाला " गरीबों और शोषितों का मसीहा

 

लोहड़ी का पर्व अन्य प्रंसगों के इलावा एक प्रचलित लोकगीत "सुंदर मुंदरियो हो' की 500वीं वर्षगांठ से भी जुड़ा है। यह लोकगीत पिछले लगभग 500 वर्ष से पंजाब, हरियाणा, दिल्ली व हिमाचल और राजस्थान के कुछ भागों के इलावा पाक पंजाब में भी इस दिन यानी लोहड़ी के दिन खूब गाया जाता है। 


क्या आप जानते हैं 'दुल्ला भट्टी वाला' को, यह शख्स हर साल उत्तर भारत में (विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, दिल्ली व हिमाचल में) लोहड़ी के पर्व पर बड़े चाव से याद किया जाता है। मुस्लिम राजपूतों के भाटीवंश में पैदा हुए इस शख्स का पूरा नाम अब्दुल्लाह खान भट्टी था। उस की मां का नाम लद्धी बेगम था और पिता का नाम फरीदखान था। वैसे उसका सारा खानदान मुगल सम्राटों व उनके सूबेदारों के खिलाफ गुरिल युद्ध के लिए चर्चित रहता था। दुला भट्टीवाला के समर्थक मुगलों की जबरन टैक्स वसूली के खिलाफ लड़ते रहते थे।




 कहते तो यह भी हैं कि दुल्ा के कारण ही अकबर को कुछ समय के लिए अपनी राजधानी दिल्ली से लाहौर ले जानी पड़ी थी। लोहड़ी के पर्व पर लोकगीतों में जिस 'दुल्ल भट्टी वाला' को याद किया जाता है, वह लाहौर की मियानी साहब कब्रगाह में आज भी दफन है। प्रचलित आख्यान यह भी है कि दुल्ले के पिता व दादा को अकबर बगावत के जुर्म में फांसी पर लटका दिया था।



 किवदंती यह भी है कि दुल्ला के बागी तेवरों को कुचलने के लिए अकबर ने अपने 12 हजार सैनिकों को एक सूबेदार मिर्जा अलाउद्दीन के नेतृत्व में दुल्ले के गांव भेजा था। दुल्ल अपने क्षेत्र का 'रॉबिनहुड' माना जाता था। लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे हुए इस लोकनायक के समर्थकों के साथ युद्ध में अकबर की सेनाएं परास्त हो गई थीं। 



उस स्थिति में उसे मुगल दरबार में संधिवार्ता के लिए बुलाया गया था और वहां उसे धोखे से गिरफ्तार कर लिया गया। उसे शाही किले में कैद रखा गया और बाद में कोतवाली के बाहर फांसी पर चढ़ा दिया गया था। उसी दबंग वीर की स्मृति में गाए गए लोहड़ी के गीत, जो आज भी लोकसंस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण भाग हैं। एक प्रसंग यह भी है कि दुल्ल भट्टीवाला सम्राट अकबर का समकालीन था। 




वह एक दबंग मुस्लिम था और अक्सर बड़े-बड़े जमीदारों को लूट लेता था। लूटी हुई सारी रकम व जेवरात वह अपने इलाके के गरीबों एवं शोषितों में बांट देता था। गरीबों व शोषितों के मामले में वह जाति या धर्म का भेदभाव नहीं करता था। 


माधी वाले दिन वह एक सालाना पर्व आयोजित करता था। इस दिन वह उन ग्रामीण कन्याओं का ब्याह रचाता, जिन्हें मुगल सम्राट के कारिंदे या आसपास के डकैत घरों से उठा ले जाते थे। वह ऐसी सभी कन्याओं को पहले उसके कब्जों से मुक्त कराता, फिर उनके लिए उचित वर ढूंढता और उन्हें अपनी तरफ से दहेज आदि देकर उनका कन्यादान स्वयं करता।


 बस तब से यानी पिछले लगभग पांच सौ बरस से हम 'सुंदर मुंदरियो-हो' गाते चले आ रहे हैं। इस दिन अब भी करोड़ों लोग घरों के बाहर गोबर के उपले या सूखी लकड़ी जलाकर उसमें गुड़ की रेवड़ी या भुनी हुई मर्की का प्रसाद चढ़ते हैं। भांगड़ा-गिद्धा चलता है, दोल बजते हैं। यानी वह दुल्ला भट्टी वाला अब भी कहीं जेहन में बसा है, जो शोषितों का मददगार था। क्या आपको अटपटा नहीं लगता कि हमारे परिवेश में अकू भी लोकनायक रहे हैं, बशर्ते कि उनके सरोकार शोषित या उपेक्षित वर्ग से जुड़े हों। 


डाकू मानसिंह का नाम अब भी उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश के अंचलों में सम्मान के साथ लिया जाता है। अनेक लोकगीत भी मानसिंह के नाम दर्ज हैं। पंजाब के जग्गा डाकू पर अनेक लोकगीत आज भी गांवों में प्रचलित हैं। निष्कर्ष यह है कि जो भी आम आदमी से जुड़ता है, भले ही वह खलनायक ही क्यों न हो, लोकनायक बन जाता है। कइयों के लिए लोहड़ी का संबंध होलिका की बहन लोहड़ी से है। 


किंवदंती के अनुसार होलिका तो जल गई थी, मगर उसकी बहन लोहड़ी आग में भी जीवित रही थी। कुछ अन्य लोग इसे संत कबीर की पत्नी माई लोई से जोड़ते हैं और कुछ इसे मकर संक्रांति की पूर्व संध्या का पर्व मानते हैं। अब लोहड़ी का परंपरागत स्वरूप आर्केस्ट्रा व कैंप फायर से जुड़ गया है, हालांकि 'सुंदर मुंदरियो' अब भी बदस्तूर जारी है।

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